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विप्रों (ब्राह्मणों) के आदि देव भगवान परशुराम

ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे
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विप्रों (ब्राह्मणों) के आदि देव भगवान परशुराम

विश्व भर में विप्रों (ब्राह्मणों) के आदि देव भगवान परशुराम जी का जन्म मुनि श्रेष्ठ जमदग्नि जी द्वारा विशेष रूप से पुत्रेष्टि यज्ञ संपन्न किये जाने पर उनकी पत्नि रेणुका के गर्भ से होना बताया जाता है। रामायण काल में अपनी महर्षि विद्या के लिए श्रेष्ठता प्राप्त भगवान परशुराम ने बैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को जन्म लिया। यही तिथि अक्षय तृतीया के रूप में मनायी जाती है। शास्त्रों और पुराणों में आये उल्लेख के अनुसार भगवान परशुराम भगवान विष्णु के छठे आवेशावतार है। परशुराम नामकरण के पीछे भी घटनाओं का जुड़ा होना बताया गया है। ऐसे कथ्यांश मिलते है कि उनके पितामह महर्षि भृगु ने उन्हें ‘राम’ नाम दिया। जबकि भगवान शिव द्वारा प्रदत्त परशु धारण करने के कारण संयुक्त रूप से ‘परशुराम’ कहलाये। अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर के आश्रम में विद्याध्ययन करते हुए दिव्य शस्त्र ‘परशु’ की प्राप्ति हुई। उन्हें त्रेतायुग के रामावतार के रूप में भी जाना जाता है।
शस्त्र विद्या के सबसे बड़े गुरू के अलावा महाभारत के सबसे बड़े वीर ‘भीष्म पितामह’ से लेकर द्रोणाचार्य और कर्ण के भी धनुर्विद्या के गुरू थे। भगवान परशुराम अपने क्रोधित तेवर के रूप में अलग पहचान रखने वाले ऋषि थे। वे एकमात्र ऐसे पात्र कहे जा सकते है जिनका वर्णन रामायण से लेकर महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि में प्रमुखता से आता है। उनके क्रोधी स्वभाव का ही यह परिणाम था कि उनके द्वारा हैहय वंशिय क्षत्रीयों का 21 बार इस पृथ्वी लोक में संहार किया। भार्गव गोत्र में उत्पन्न भगवान परशुराम ने अपने गोत्र में सबसे अधिक आज्ञाकारी होने का भी गौरव पाया। माता पिता और गुरूजनों का सम्मान करने वाले परशुराम जी ने सारी सृष्टिï में पशु-पक्षियों, वृक्ष, फूलों-फलों की जीवंतता बनाये रखने कर्तव्य का पालन किया। पशु-पक्षियों की भाषा समझने वाले परशुराम जी उनसे बातें भी किया करते थे। उनके प्रेम के चलते ही खूंखार वन्य प्राणी भी उनके स्पर्श मात्र से उनके मित्र बन जाया करते थे। अपने माता-पिता के पांच पुत्रों में परशुराम सबसे छोटे पुत्र थे।
वाल्मिकी जी ने परशुराम जी को राजाओं का वध करने वाले मुनि के रूप में वर्णित किया है। वाल्मिकी जी के अनुसार परशुराम ने केवल क्षत्रियों का ही वध नहीं किया है, बल्कि अन्य राजाओं का भी वध करने में उनका हाथ रहा है। ऐसे वर्णन भी मिलते है कि परशुराम ने सभी क्षत्रियों का वध नहीं किया, वरन केवल उन्हीं क्षत्रियों से पृथ्वी को मुक्त कराया जो नीच प्रवृत्ति के विचार रखते थे। एक कथानक के अनुसार कार्तायवीर्य जो हैहयवंश के अधिपति थे, ने घोर तपस्या करके भगवान दत्तात्रेय से युद्घ में अपराजेय होने का वरदान प्राप्त कर लिया था। इसी तपोबल के आधार पर क्षत्रीय राजा ने परशुराम जी के पिता को प्राप्त कामधेनु गाय और उसके बछड़े को छीनकर ले गये, जब परशुराम अपने पिता के साथ नहीं थे। उन्हें जब इस बात की जानकारी हुई तो वे कात्र्तयवीर्य को मारकर कामधेनु वापस लाकर अपने पिता को देने के बाद तीर्थाटन पर चले गये। परशुराम के तीर्थाटन पर जाने का भान होते ही हैहय क्षत्रियों ने जमदग्नि जी का सिर काटकर उनका वध कर डाला। जैसे ही इस घटना की जानकारी परशुराम जी को हुई उन्होंने बीच में तीर्थ यात्रा रोककर अपनी कुटिया पहुंचे और पिता के शरीर पर 21 घाव के निशान देख प्रतिज्ञा कर ली कि वे इस पृथ्वी से 21 बार क्षत्रियों का वंश समाप्त करेंगे, और फिर उन्होंने अपने क्रोधी स्वभाव स्वरूप उसे कर दिखाया। 21वीं बार क्षत्रियों का वंश समाप्त कर उन्होंने खूंन से सने अपने हाथों और फरसे को समंत पंचक पर खो कर पांच बड़े कुंडों को भर दिया, फिर शांत होकर बैठ गये।
भगवान परशुराम का जन्म एक ब्राम्हण वंश में हुआ, किंतु वे कर्म से स्वयं क्षत्रीय थे। यही कारण है कि वे ‘भार्गव’ नाम से भी संबोधित किये गये। उत्तरी भारत तथा पश्चिम तटीय क्षेत्रों में परशुराम जी के अनेक मंदिर स्थापित है। अग्नि मंदिर के नाम से भगवान परशुराम का प्रसिद्घ मंदिर अक्कलकोट के शिवपुरी में, महाराष्ट्र के खोपोली और गुजरात के सौराष्टï्र में स्थापित है। इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर से 18 किमी दूरी पर स्थित अखनूर में भी भगवान परशुराम का भव्य मंदिर स्थापित है। हिमाचल प्रदेश में भगवान परशुराम के साथ ही उनकी माता रेणुका के सम्मान में बनाया गया मंदिर अपनी भव्यता और कलात्मकता के लिए प्रसिद्घी पा चुका है। यह प्रसिद्घ मंदिर गिरी एवं जलाल नामक दो नदियों के संगम पर बनाया गया है। सिरमौर जिला मुख्यालय से 40 किमी की दूरी पर स्थित इस मंदिर में स्थापित रेणुका की मूर्ति पूरे हिमाचल प्रदेश की प्राकृतिक सौंदर्यता पर चारचांद लगाती प्रतीत होती है। यहां का मुख्य आकर्षण पवित्र रेणुका झील, परशुराम ताल तथ मंदिर, भगवान परशुराम तथा उनकी माता रेणुका को समर्पित है। माता और पुत्र के स्मृति में प्रतिवर्ष एक पवित्र मेले का आयोजन भी कार्तिक एकादशी के दिन किया जाता है।
भगवान परशुराम-महादेव के नाम से राजस्थान, जोधपुर के पाली जिले में एक बहुत बड़ा मेला लगता है। यह प्रसिद्घ मेला प्रतिवर्ष पाली जिले के बाहरी बस्तियों में होता है। कहते है इस स्थान पर स्वयं भगवान परशुराम ने पूजा प्रार्थना की थी। यह स्थान स्थानीय पर्वतीय क्षेत्र के उस स्थान पर है, जो शांतिपूर्ण परिवेश में पर्वत के नीचे की सबसे छोटी पहाड़ी पर स्थित है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 4 हजार फीट पर है। हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार भारत वर्ष में यह एकमात्र स्थान है, जहां भगवान परशुराम के सम्मान में प्रार्थनाएं की जाती है। अगस्त और सितंबर के महीने में लगभग 5 से 10 लाख अनुयायी इस मेले में भगवान परशुराम के पूजा अर्चना के लिए पहुंचते है। वैसे वर्ष भर राजस्थान का यह क्षेत्र धर्मावलंबियों के दर्शन का आकर्षण बना रहता है।
इसी प्रकार भगवान परशुराम के प्रसिद्घ मंदिरों में से एक केरल प्रदेश के त्रिवेंद्रम-तिरूवलम में है, जहां पर ब्रह्म, विष्णु और महेश की भी मूर्ति पूजी जाती है। ऐसा माना जाता है कि इसी स्थान पर भगवान परशुराम का फरसा अरेबियन सागर में गिर गया था। पंजाब प्रदेश के फगवाड़ा के निकट खाटी में भी भगवान परशुराम की याद में एक शानदार मंदिर होने की जानकारी इतिहास के पन्नों में दर्ज है।अक्षय तृतीया के ही दिन भगवान परशुराम ने भगवान विष्णु के छठे अवतार के रूप में जन्म लिया था। अश्वत्थामा बलि व्र्यासो हनुमांश्च विभीषण: । कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन: ॥ अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपचार्य, और परशुराम, ये सात चिरंजीवि हैं । अत:आज भी पृथ्वी पर विद्यमान हैं।

–ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, ” ज्योतिष का सूर्य ” राष्ट्रीय मासिक पत्रिका
जीवन ज्योतिष भवन, सड़क-26, कोहका मेन रोड, शांतिनगर, भिलाई, दुर्ग(छ.ग.)
मोबा.नं.09827198828, jyotishkasurya@gmail.com http://ptvinodchoubey.blogspot.in/2012/04/21-i-21-21-21-i-18-40-4-5-10.html

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